इधर-उधर की बात 86– बचपन की नज़र से -ब्रिगेडियर पी एस घोतड़ा (सेवानिवृत)

 

साप्पड तैयार है?” पापा ने चाय का खाली कप मेस बॉय को देते हुए पूछा।

मैं चार साल का था, बहन तीन की। हमने एक-दूसरे को देखा — वो नज़र जो हर छोटे-छोटे भाई-बहन की टीम में होती है, जब वो किसी ‘मिशन’ पर हों। साप्पड’ नाम का कुछ खास खाने में आने वाला था। मैंने इस धरती पर उससे एक साल अधिक के अनुभव के साथ उसके कान में कहा, “साप्पड, पापड़ से भी टेस्टी होगा।”

हमारी आँखों में चमक थी, दिल में उम्मीदें — कि शायद ये कोई ऐसा खाना है जो सिर्फ आर्मी ऑफिसर्स को मिलता है। हम खुशी से उछलते-कूदते पापा के साथ मेस की ओर चल दिए।

और फिर... हकीकत से टक्कर।

थाली में आया — दाल-चावल। बस। पर साप्पड कहाँ है?” मैंने मासूमियत से पूछा।

पापा बोले, “यही साप्पड है बेटा। तमिल में खाने को साप्पड कहते हैं।”

उस दिन लगा जैसे किसी ने दिल तोड़ दिया हो। इतनी उम्मीदें सिर्फ दाल-चावल के लिए?

वैसे ये पहली बार नहीं था। मम्मी जब भी कहतीं, “आज खिचड़ी बनेगी,” तो मेरे मन में खीर का सपना बन जाता। और फिर जब गर्म, नमकीन खिचड़ी सामने आती... मेरा मन करता, थाली छोड़ दूँ। ऐसे ही, जब रसोई से भीनी-भीनी हलवा बनने की खुशबू आती तो जिंदगी के अरमान जाग जाते।  लेकिन जब माँ हाथ में उपमा की कटोरी थमा देती दिल टूट जाता।

बचपन का मतलब ही था — सपनों और सच्चाई के बीच का फासला।

एक बार कॉलोनी में लाउडस्पीकर से आवाज़ आई:
एक चोर पकड़ा गया है!”

पूरा मोहल्ला दौड़ पड़ा। मैं भी पीछे-पीछे गया, ये सोचकर कि कोई ज़बरदस्त सीन देखने मिलेगा।

पर वहाँ पहुँचा, तो एक आम-सा लड़का ज़मीन पर बैठा था, हाथ बंधे हुए।

मैंने दोस्त से पूछा, “चोर कहाँ है?”

वो बोला, “वो ही है।”

मुझे यकीन नहीं हुआ।
क्योंकि बचपन से सुना था: "चोर दीवारें चढ़ सकते हैं!" "चोर की चमड़ी इतनी फिसलनभरी होती है कि पकड़ में ही नहीं आते!" "चोर काले कच्छे पहनते हैं!"

और सामने बैठा था — न काला कच्छा, न स्पाइडरमैन जैसी कोई चाल।

उसी दिन समझ आया — चोर भी आम इंसान होते हैं।

वैसे एक और दिलचस्प किस्सा मेरी बहन का है।

हम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन चढ़ने वाले थे, लेकिन बहन डरते-डरते चल रही थी, जैसे कोई सज़ा काटने जा रही हो।

मैंने पूछा, “क्या हुआ?”

वो बोली, “अगर इस गाड़ी में चढ़े... तो मर जाएँगे!”

मैं चौंक गया, “किसने बोला?”

वो बोली, “मेरी फ्रेंड ने। उसने कहा — जो गड्डी चढ़ जांदा है वह मर जांदा है (पंजाबी)।”

पापा वहीं हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।

असल में, " गड्डी चढ़ जाना" एक मुहावरा है — जिसका मतलब होता है दुनिया छोड़ देना। बहन ने उसे सच समझ लिया और सोचा हम मरने जा रहे हैं।

ऐसी थी हमारी बचपन की मासूम दुनिया — भाषा की भूल, कल्पनाओं की उड़ान और रोज़ नई-नई खोजें।

एक बार तो किसी ने कहा, “आर्यभट्ट सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजा गया है।”
मैं कई रातें आसमान देखता रहा — सोचता रहा, ‘आर्यभट्ट चाँद की तरह दिखेगा?’

जब तक किसी ने समझाया नहीं कि सैटेलाइट आँखों से नहीं दिखते।

ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही होती है।
हर दिन कोई ना कोई ग़लतफहमी।
कुछ दुख देती है, कुछ हँसी... और कुछ हमेशा के लिए याद बन जाती हैं।

कभी-कभी, जो सबसे बड़ी निराशा लगती है — वही सबसे प्यारी कहानी बन जाती है।

जय हिंद!

Note:- यह कहानी 'दादी/नानी की कहानियाँ' नामक पुस्तक में शामिल की जाएगी। पाँच और कहानियाँ लिखी गई हैंउन कहानियों की बाल मनोवैज्ञानिक द्वारा जाँच की जा रही है। पुस्तक तैयार होने पर मैं आपको  बताएँगे


Comments

  1. 7वीं के आसपास, मुझे यह जानकारी मिली कि इटालियन लोग हॉट डॉग खाते हैं - गर्म कुत्ता। मैंने अपने सभी गाँव के दोस्तों के साथ यह ज्ञान साझा किया

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