इधर उधर की बात 107 - कोई शक? ब्रिगेडियर पी एस घोतड़ा (सेवानिवृत्त)

...... राइफल भूमि शस्त्र … चेक टारगेट।”

 

मुझे पूरा यक़ीन था कि मेरी साफ़-सुथरी और परफ़ेक्ट कमांड सुनकर मेरे कमांडिंग ऑफिसर इस बार ज़रूर खुश होंगे। लेकिन बस ख़ामोशी।

 

डेढ़ साल पहले मिली पहली डाँट के बाद से ही मैं उनकी तारीफ़ पाने के लिए तरस रहा था। उस दिन उन्होंने झिड़कते हुए कहा था:

यू ब्लडी इडियट, अपनी कम्युनिकेशन स्किल्स सुधारो!”

 

रेडियो सेट पर बात करते हुए मैं अटक रहा  था—‘प्रेस टू टॉक’ जैसे बुनियादी नियम भी सही से नहीं सीखे थे।  सिर्फ़ एक घंटा पहले ही मेरी पेट्रोल ने एक आतंकवादी को ढेर किया था—पूरी ब्रिगेड में दो साल में पहली कामयाबी। मैंने सोचा था बॉस मेरी पीठ थपथपाएंगे और तारीफ़ करेंगे। मगर मुझे फिर याद दिला दिया गया कि सिपाही की लड़ाई सिर्फ़ दुश्मन से नहीं, बल्कि अपनी कमजोरियों से भी होती है।

 

तब मैंने ठान लिया। फील्ड सिग्नल्स की कला सीखी, कुछ अपने तरीके भी बनाए—खासतौर पर श्रीलंका में LTTE के ख़िलाफ़ लड़ाई के दौरान। मैंने सुनिश्चित किया कि में अपने  जवानों  को हमेशा ठीक से ब्रीफ़ और डिब्रीफ़ करूं। मार्च करती टुकड़ी को आदेश देते हुए उनके कदम टूटे नहीं। धीरे-धीरे मैं पी.टी. उस्ताद जैसा भी बन गया ।

 

लेकिन पीस स्टेशन की लड़ाइयाँ अलग किस्म की थीं। एक बार सैंड मॉडल डिसकशन  में स्पीकर बोला:

रात दस बजे तक हम रूट्स पर आइसोलेशन पोज़िशन्स ले लेंगे। सुबह हम फंदा कसकर इन्वेस्टमेंट पोज़िशन्स अपनाएंगे ।”

 

मैंने मासूमियत से हाथ उठाकर पूछा:

सर, ‘फंदा कसने’ की बात अपने जवानों को यह साफ़-साफ़ कैसे समझाऊँ?”

 

पूरा हाल ठहाकों से गूंज उठा। स्पीकर ने चाय ब्रेक घोषित कर दी।

 

मेरा दोस्त अजय मेरी बेइज़्ज़ती बर्दाश्त नहीं कर पाया। बोला, “तू ऐसे बेवक़ूफ़ी के सवाल क्यों पूछता है? लड़ाई तो लगने वाली नहीं। फर्क क्या पड़ता है?”

 

मैंने विरोध किया, “लेकिन अस्पष्टता से लड़ाई में जानें जा सकती हैं।”

 

उसने सिर हिलाया और पूछा, “तुझे पता है गोल्फ में मुलिगन क्या होता है?”

मैंने अनभिज्ञता जताई।

वह बोला, “खेल के शुरू में खराब शॉट के बाद एक फ़्री एक्स्ट्रा शॉट। समझा? श्रीलंका और मणिपुर को भूल जा। एक मुलिगन ले। चिकनी अंग्रेज़ी सीख ले सैंड मॉडल के लिए। पार्टियों में एम.सी. बन। तंबोला के नंबर स्टाइल में अनाउंस कर। और मोटे-मोटे  मिलिट्री पेपर्स लिख।”

 

मैं चाय लेने चला  गया। दिमाग़ अब भी उसी सवाल पर अटका था—जवानों को कैसे ब्रीफ़ करूँ ताकि कोई भी बिना स्पष्टता के खतरे में न जाए।

 

बाद में, मेरे सी.ओ. ने मेरी एनुअल रिपोर्ट में कम्युनिकेशन स्किल्स कॉलम में 9 में से 8 नंबर दिए, लेकिन फिर भी लिखा: “ऑफ़िसर को कम्युनिकेशन स्किल्स सुधारने की सलाह दी जाती है।”

सालों बाद, जब मैं ख़ुद कमांडिंग ऑफिसर बना, तब समझ आया। निष्ठा, साहस, ईमानदारी जैसे गुणों में “थोड़ा कम” लिखने की गुंजाइश नहीं होती। लेकिन कम्युनिकेशन? वहीं पर रिपोर्ट्स में सबसे ज़्यादा खेला जाता है। फिर भी, मन ही मन मैं जानता था—बिना साफ़ और स्पष्ट कम्युनिकेशन के अच्छा नेतृत्व संभव नहीं है।

इसलिए, चाहे जंग हो या अमन, हर ब्रीफ़िंग के अंत में मैं सिर्फ़ दो शब्द कहता था:

कोई शक?”

क्योंकि अगर लीडर खुद ही समझा नहीं है, तो उसे दूसरों को लड़ाई में ले जाने का कोई हक़ नहीं।

Ji Hind


Comments

  1. Very correctly brought out the finer point of ACR, the pivot of carrier.
    Very well & simply explained sir.
    A lesson to budding officers.

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  2. Hahaha 🤣 Absolutely relatable Sir

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  3. Amazingly written and described with deep bonding and depth 🙏

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