इधर उधर की बात 101 – ऑपरेशन थिएटर ब्रिगेडियर पी.एस. घोतड़ा (सेवानिवृत्त)
मैं उन लोगों में से हूँ जो सड़क पर खड़ी किसी खराब गाड़ी को देखकर उसके बोनट में झाँकने से खुद को रोक नहीं पाते। मदद करने नहीं, बस जानने के लिए कि अंदर हो क्या रहा है।
अब सोचिए मेरी हालत क्या रही होगी जब मैं ऑपरेशन थिएटर की टेबल पर लेटा था। होश पूरा था, लेकिन नीचे कमर से सब सुन्न। और सामने छाती पर एक हरी चादर दीवार बनकर खड़ी थी — डॉक्टर क्या कर रहे हैं, देखने का कोई चांस नहीं। मैंने तो यहाँ तक सोचा कि शायद दीवार पर कहीं शीशा लगा हो और उसमें झलक मिल जाए।
उसी बीच ऑक्सीजन मास्क थोड़ा खिसक गया और नाक में खुजली कर दी। अब नाक की खुजली और हाथ काम न करें तो उससे बड़ा अत्याचार कोई नहीं। वही बेबसी, जैसी ड्रिल परेड सावधान या सलामी शस्त्र में खड़े होकर लगती है, जब मक्खी आकर नाक पर बैठ जाए।
ध्यान भटकाने के लिए मैंने मॉनिटर के बीप-बीप गिनने शुरू कर दिए। एकदम बराबर अंतराल में — मन को तसल्ली मिली, “All is well”
इतने में हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी — “फायर लेज़र।”
बस, सुनते ही दिमाग मुझे वापस काउंटर टेररिस्ट ऑपरेशन में ले गया। एक घर को चारों ओर से घेर रखा है। पक्की इंटेलिजेंस मिली थी, लेकिन घर का मालिक कसम खा रहा है — “गाँव में छह महीने से कोई आतंकवादी नहीं आया।” फिर भी घेरा बनाये रखते हुए, परिवार को बाहर निकालते हैं और इंतज़ार करते हैं।
मैं तो वैसे भी धैर्य वाला बाँदा हूँ। लाउडहेलर पर बार-बार आवाज़ लगाता — “बाहर आ जाओ, दोनों हाथ हवा में!” घंटे गुजर जाते, अंदर से कोई हरकत नहीं।
इसी बीच ब्रिगेड मुख्यालय से हर पंद्रह मिनट पर फोन — “की होया?” (What happened?) और कोई चालाक अफसर कह देता है — “सर, कमांडर कह रहे हैं कुछ करो।”
और फिर अचानक — धायें! आतंकवादी फायर करता है या कोई सिपाही हथियार पकड़े आदमी को देख लेता है। उस पल का रोमांच… बेमिसाल।
ओ.टी. में लेज़र मशीन से ठक-ठक की आवाज़ दस मिनट तक आती रही। मुझे गर्व-सा हुआ — “वाह, मैंने तो एक तगड़ा पत्थर बनाया है।” मैंने सोचा — “बस, अब तो काम खत्म।”
पर नहीं। डॉक्टर लगे रहे। इस बीच मुझे इमरजेंसी के दिनों का एक पुराना जोक याद आ गया। शायद मैं मुस्कुरा भी रहा था, तभी एनेस्थेटिस्ट ने झुककर पूछा — “सर, आप ठीक हैं?”
“हाँ,” मैंने कहा।
शायद उसने सोचा, बूढ़ा पागलपन की कगार पर है।
जोक कुछ यूँ था — इमरजेंसी के दिनों में चार बच्चों का बाप नसबंदी के लिए स्ट्रेचर पर ले जाया जा रहा था। बीच रास्ते में उसने डॉक्टर का हाथ पकड़कर बड़ी विनती भरी आँखों से कहा —
“डॉक्टर साब, ज़्यादा छोटा मत कर देना।”
ऑपरेशन के बाद मेरा डॉक्टर मुस्कराया और बोला — “काम हो गया।” उसने छोटे-छोटे टुकड़ों का प्लास्टिक पैकेट दिखाकर मेरी हथेली से बाँध दिया।
बाहर निकाला जा रहा था, तभी ड्यूटी पर खड़े एक इंटरन ने पूछा —
“सर, आप ऑपरेशन टेबल पर इतने कूल कैसे रहे?”
मैं इसका उत्तर अगले एपिसोड में दूंगा
Wow! Good one Param... different frontier though. 👌👍😉
ReplyDeleteNice humorous article bro.Turning serious circumstances into a comedy is your forte.Keep it up buddy.
ReplyDelete