इधर-उधर की बात 84 – बोर्ड पेपर -ब्रिगेडियर पी एस घोतड़ा (सेवानिवृत)
"अब मेरी ज़िंदगी खत्म हो गई है। मैंने दो साल मेहनत की और अब सब बेकार चला गया, क्योंकि मुझे सबसे मुश्किल पेपर सेट मिला है," मैंने मेट्रो में कुछ स्कूल के लड़कों को बारहवीं के फिजिक्स पेपर के बारे में चर्चा करते हुए सुना।"मैं अब इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं जाऊंगा," एक और लड़का बोला, उसकी आँखों में आँसू थे।
मैं मुस्कराया। मुझे वो समय याद आया, जब मैं भी फिजिक्स से हारा हुआ महसूस करता था। मेरी कुछ कैलकुलेशन्स ग़लत हो गई थीं। उस वक्त लगा था, जैसे ये मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी हार है।
लेकिन आज मैं महसूस करता हूँ—फिजिक्स सिर्फ एक विषय या कॉलेज की सीट नहीं है। ये असल ज़िंदगी में समस्याएं सुलझाने, रणनीति बनाने और ज़िंदा रहने की कला है।
मेरा मन साल 2005 के मस्तान धारा की ओर चला गया—जहाँ फिजिक्स ने मेरी मदद की थी।
"सॉरी सर, मेरी AK-47 घर के सामने गिर गई," मेजर संतोष की आवाज़ मेरे ईयरपीस में गूंजी। हम बीते बीस दिनों से एक आतंकवादी की गतिविधियों पर थर्मल डिवाइसेज़ से नज़र रख रहे थे। और आज सुबह, हमने उसे डंडियान मोहल्ला, मस्तान धारा के एक ढोक (पशु शेड) में घेर लिया था।
मेजर संतोष और जम्मू-कश्मीर पुलिस के कांस्टेबल दाऊद रेंगते हुए ढोक की ओर जा रहे थे ताकि एक स्टन ग्रेनेड अंदर फेंक सकें।
जैसे ही वे आगे बढ़े, दाऊद ने ढोक की दरारों से एक बंदूक की बैरल देखी।
उसने तुरंत संतोष की कॉलर पकड़ कर पीछे खींचा, और एक गोलियों की बौछार उनके पास से गुज़र गई।
उस अफरा-तफरी में, संतोष की राइफल गिर गई।
"चिंता मत करो," मैंने कहा। "स्नाइपर टीम पहुंच रही है। उनके साथ रहो। अगर आतंकी बाहर निकले, तो एक गोली में खत्म कर देना। बिना ज़रूरत फायर मत करना क्योंकि गोली पत्थर से टकरा कर हमारे जवान या नागरिक घायल सकती है।"
मेजर अरूपम ने घेरा बहुत अच्छी तरह बना रखा था। हम ढोक की छत पर थे, जिसकी मिट्टी और लकड़ी की मोटी परत अंदर से आने वाली गोलियों को रोक रही थी।
मेजर अरूपम ने ढोक के मालिक को बुलाया।
उसने पुष्टि की— आतंकवादी
के इलावा कोई परिवार का सदस्य या मवेशी अंदर नहीं था।
रॉकेट लॉन्चर से ढोक उड़ाना कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि आसपास के घरों को नुक़सान हो सकता था।
अरूपम ने सुझाव दिया कि चुपचाप जाकर स्टन ग्रेनेड अंदर गिरा दें। लेकिन आतंकी अब भी समय-समय पर एक-एक गोली दाग रहा था, इसलिए पास जाकर ग्रेनेड फेंकना बहुत खतरनाक था।
हमें ऐसा तरीका चाहिए था जिससे हम ग्रेनेड अंदर पहुंचा सकें, बिना खुद को उजागर किए।
तभी मुझे याद आया—फिजिक्स।
"अपने जूते के फीते निकालो," मैंने कहा।
सारे जवान मुझे हैरानी से देखने लगे। "हम ग्रेनेड को जूते के फीते से लटकाकर पेंडुलम की तरह झुलाएंगे और अंदर फेंकेंगे।"
ये एक जुआ था। लेकिन हमारी सबसे अच्छी उम्मीद भी यही थी।
पहली कोशिश असफल रही—ग्रेनेड का प्लंजर लेस के गांठ में फंस गया।
मैं थोड़ा चिंतित हुआ कि कहीं आतंकी उसे वापस न फेंक दे। लेकिन फिर समझ आया—अगर वो बाहर निकलेगा, तो स्नाइपर उसे तुरंत ढेर कर देंगे।
हमने दूसरी बार कोशिश की—इस बार दो ग्रेनेडों को झूला कर ढोक के अंदर गिरा दिया।
विस्फोट हुआ। फिर... सन्नाटा।
"सर लगता है वह मर गया है मैं अंदर जाऊं?" अरूपम जोश में बोला।
लेकिन अनुभव ने मुझे इंतज़ार करना सिखाया था। मैंने टीम को रोक लिया।
बटालियन मुख्यालय में, एडजुटेंट पर ऊपर से कॉल्स की बौछार हो रही थी।
वरिष्ठ अधिकारी अपडेट पूछ रहे थे। उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि ऐसा दबाव ग्राउंड पर मौजूद कमांडर को गलत फैसले के लिए मजबूर कर सकता है—जिसकी कीमत जान से चुकानी पड़ सकती है।
एक घंटा बीत गया। फिर अचानक—भीतर से एक और गोलीबारी हुई।
वो ज़िंदा था। हमने फिर से वही पेंडुलम ग्रेनेड तकनीक अपनाई।
फिर से सन्नाटा।
अब मैंने आदेश दिया—बारूद लगाकर नियंत्रित धमाका करें।
ढोक का ढांचा गिराया गया।
एक घंटे बाद, आतंकी का शव बरामद हुआ।
उसका हथियार और गोला-बारूद अगले दिन खुदाई कर निकाला गया।
मेट्रो में वो स्कूली बच्चे अब भी चर्चा कर रहे थे।
वे वही लड़ाई लड़ रहे थे जो कभी मैंने लड़ी थी—उम्मीदों, निराशा और डर की लड़ाई।
लेकिन वो नहीं जानते थे कि ज़िंदगी बोर्ड एग्ज़ाम से कहीं बड़ी होती है।
शायद एक दिन वे भी उस मोड़ पर पहुंचें, जहाँ फिजिक्स नंबर नहीं, जिंदगी बचाने का तरीका बनेगा।
बोर्ड परीक्षा में अच्छे परिणाम के लिए शुभकामनाएँ।
जय हिंदl
ज़िंदगी के इम्तिहान में मत घबरा तू हार से,
कभी ग्रेनेड्स भी चल जाते हैं बूटलेस के वार से।
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