इधर उधर की बात 101 – ऑपरेशन थिएटर ब्रिगेडियर पी.एस. घोतड़ा (सेवानिवृत्त)

मैं उन लोगों में से हूँ जो सड़क पर खड़ी किसी खराब गाड़ी को देखकर उसके बोनट में झाँकने से खुद को रोक नहीं पाते। मदद करने नहीं , बस जानने के लिए कि अंदर हो क्या रहा है। अब सोचिए मेरी हालत क्या रही होगी जब मैं ऑपरेशन थिएटर की टेबल पर लेटा था। होश पूरा था , लेकिन नीचे कमर से सब सुन्न। और सामने छाती पर एक हरी चादर दीवार बनकर खड़ी थी — डॉक्टर क्या कर रहे हैं , देखने का कोई चांस नहीं। मैंने तो यहाँ तक सोचा कि शायद दीवार पर कहीं शीशा लगा हो और उसमें झलक मिल जाए। उसी बीच ऑक्सीजन मास्क थोड़ा खिसक गया और नाक में खुजली कर दी। अब नाक की खुजली और हाथ काम न करें तो उससे बड़ा अत्याचार कोई नहीं। वही बेबसी , जैसी ड्रिल परेड सावधान या सलामी शस्त्र में खड़े होकर लगती है , जब मक्खी आकर नाक पर बैठ जाए। ध्यान भटकाने के लिए मैंने मॉनिटर के बीप - बीप गिनने शुरू कर दिए। एकदम बराबर अंतराल में — मन को तसल्ली मिली , “All is well ” इतने मे...